अब पहुंची हो तुम : मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं को सहेजती कविताएं • प्रमोद दीक्षित मलय

कविता गहन अनुभूतियों का प्रखर-प्रशांत प्रकटीकरण है, सहकार समुच्चय है। वही कविता जीवंत और श्रेष्ठ कही जायेगी जिसमें अनुभूतियों का ताप गहरा एवं ऊंचा होता है, जिसमें संवेदनाओं के फलक पर अंकित चित्र अपनी जड़ों से जीवन सत्व और रस ले रहे होते हैं। जिसमें आमजन का स्वर पूरे आवेग एवं संवेग के साथ मुखरित हुआ हो, जिसमें श्रम के पसीने की बूंदें बिम्ब बनकर छलछला आई हों। जिसमें लोक अपनी आग एवं राग के साथ प्रकट हुआ हो और जिसमें जनपक्षधरता हो। इस दृष्टि से महेश चंद्र पुनेठा का सद्य: प्रकाशित कविता संकलन ‘अब पहुंची हो तुम’ न केवल खरा उतरता है बल्कि बंद दीवारों में मानवीय चेतना एवं मूल्यों के झरोखे भी खोलता है जिसके पार सिसकती मानवता, चौखट और खेत में खटते स्त्री जीवन, भय, भूख और लूट एवं शोषण के रंगहीन टापू तथा विस्थापन एवं पलायन से कराहते पहाड़ के आंसू के खारेपन को महसूस किया जा सकता है। और यह महसूसना दर असल उठकर खड़ा होने और सवाल उठाने की ऊष्मा, सलीका और जगह देता है। एक प्रकार से ये कविताएं पढ़ते हुए पाठक न केवल अपने वर्तमान को जीते हुए स्वयं अंतर्मन में झांक रहा होता है साथ ही अतीत की स्मृतियों की चादर की सलवटें भी सीधी कर रहा होता है। वास्तव में संग्रह की कविताएं हाशिए पर जबरिया धकेले और ठहराये गये कदमों एवं सांसों के साथ अपनी मुट्ठी तान कर खड़ा होने एवं आगे बढ़ने की राह दिखाती हैं।
         महेश चंद्र पुनेठा एक समर्थ रचनाकार होने के साथ ही संवेदनशील शिक्षक एवं पढ़ने-लिखने की संस्कृति के पोषक हैं। दीवार पत्रिका एक अभियान के माध्यम से स्कूलों में देश की नई पौध को रचने-गुनने का एक सशक्त मंच एवं अवसर उपलब्ध करा रहे हैं, वहीं गांव-गांव में जनता पुस्तकालय के द्वारा आम आदमी तक पुस्तकें पहुंचा उन्हें वैश्विक सरोकारों से जोड़ भी रहे हैं।‌ इसलिए इन अनुभवों से गुजरते हुए कवि का रचना वितान न केवल विस्तार लेता है बल्कि जीवन के विविध सरोकारों को जोड़ता भी है। वह आंखिन देखे और भोगे यथार्थ के खुरदुरे धरातल पर कविताओं की नींव रखते हैं। उनकी कविताएं आम आदमी के दर्द, पीर, आंसू , आक्रोश, मिलन, बिछोह को स्वर देती दिखाई पड़ती हैं वहीं गांवों से हो रहे पलायन के चित्र भी उकेरती हैं। महेश की कविताओं में विस्थापन के कारण अपनी जड़ों से कटी पनीली सूनी आंखें हैं तो तथाकथित विकास के नाम पर हो रहे प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट के प्रति नाराजगी भी।   कहने में कोई गुरेज नहीं कि महेश चंद्र पुनेठा की कविताओं में मानव मूल्यों का शीतल झोंका है तो समाज में व्याप्त गैर बराबरी, लैंगिक भेदभाव और असमानता के विरुद्ध लहकती आग भी। पुस्तक में शामिल कविताएं समता-समानता, न्याय, प्रेम, भाईचारे की मद्धिम आंच में पकी हैं और जीवन अनुभवों की ऊष्मा में तपी भी।
     पुस्तक का शीर्षक उस विज्ञापनी विकास की पोल खोल एक सवाल उठाता है – सड़क! अब पहुंची हो तुम गांव/ जब पूरा गांव शहर जा चुका है/सड़क मुस्कराई/सचमुच कितने भोले हो भाई/पत्थर-लकडी और खड़िया तो बची है न! यह उस व्यवस्था पर तंज भी है जिन्होंने प्राकृतिक उपहारों का शोषण किया है और लोक को वादों का झुनझुना पकड़ा सपने दिखाते रहे हैं। एक कविता अंश देखें, गांवों को जोड़ती हैं/ लड़खड़ाती पगडंडियां/ सड़क तो नदी की ओर/ जाती देखी जाती है यहां।
पुस्तक की 55 कविताओं (हालांकि कुछ कविताओं के अंदर तमाम कविताएं शामिल हैं जैसे ‘बकरी’ और ‘दीपावली’ में तीन-तीन कविताएं, ‘अथ पंचेश्वर घाटी कथा’ अंतर्गत नौ तथा ‘मेरी रसोई-मेरा देश’ में सैंतीस कविताएं शामिल हैं) में जीवन को करीब से देखती दुलराती भावाभिव्यक्तियां हैं। हर कविता पाठक को आगे पढ़ने को उकसाती है और सोच को धार भी देती है। लोकतंत्र में सवाल उठने ही चाहिए पर जब सवालों पर पहरेदारी होने लगे तो यह लोकतंत्र पर संकट का संकेत है। कविता ‘नचिकेता’ के माध्यम से कवि महत्वपूर्ण बात कहता है कि “नचिकेता! तुमने चाहे/प्रश्नों के उत्तर/इसलिए तुम/हजारों साल बाद भी/जिंदा हो/ जब तक प्रश्न रहेंगे/ तब तक तुम भी रहोगे।” इन कविताओं में जीवन के विविध रंग समाए हुए हैं। कविताओं को पढ़ते हुए पाठक अपने परिवेश को एक अलहदा नजरिए से देखने लगता है। ‘संतुलित आहार’ कविता की कुछ पंक्तियां देखें, “कल स्कूल से लौटने के बाद से/ नहीं खाया कुछ भी उसने/और देखने लगी/रसोईघर की ओर/भर आई आंखों से।” समर्थ रचनाकार ने हमारे मानवीय जीवन के करीब के ऐसे मुद्दों की पड़ताल की है जिन्हें सामान्यतया हम गैरजरूरी समझते हैं और हमारी दृष्टि वहां तक नहीं पहुंच पाती। इन कविताओं में पहाड़ के संसाधनों की की जा रही अनवरत लूट के कारण गरीब होते गांव और समृद्ध होते शहर की बयानी है तो वहीं आत्मीय प्रेम की मीठी तपिश भी। ‘ओड़ा का पत्थर’ के माध्यम से कवि रिसते सम्बन्धों के गांवों पर प्रेम-स्नेह के मरहम का फाहा रखता नजर आता है, “जब मां कलेवा लेकर आई होगी/धान मड़ाई के दिनों/बैठकर इन्होंने/एक ही थाली में खाया होगा/एक ही गिलास से/खींचे होंगे छांछ के लंबे-लंबे घूंट..जब गिराई जा सकती हैं बड़ी बड़ी दीवारे/ यह तो एक पत्थर मात्र है।” कवि को प्रतीकों के माध्यम से बात कहने में महारत हासिल है जिनमें नचिकेता, हरेपन को बचाना, खिनवा, गांव में मंदिर, मेरी रसोई – मेरा देश, छोटी नदी और कुएं के भीतर कुएं पाठक को चिंतन हेतु विवश करती हैं। देखें, “क्षेत्र का कुआं, भाषा का कुआं, धर्म का कुआं, जाति का कुआं, गोत्र का कुआं, नस्ल का कुआं, लिंग का कुआं/ कुएं के भीतर कुएं बना डाले हैं तुमने …एक जिंदा आदमी/इतने संकीर्ण कुएं में/ कैसे रह सकता है भला।” कवि की दृष्टि से कुछ लुकाछिपा नहीं है। विस्थापन, पीर, स्मृति, बिछोह, मिलन, खुशी को व्यक्त करतीं कविताएं मानव मन के दरवाजे  पर दस्तक देती हैं। ठिठकी स्मृतियां, रद्दी की छंटनी,  किस मिट्टी के बने हैं पिता जी, कविताएं स्मृति के गवाक्ष के पर्दे खोलती हैं। तो उसका लिखना, जो दवाएं भी बटुवे के अनुसार खरीदती थी, मां की बीमारी शीर्षकांकित कविताएं एक औरत के वजूद, संघर्ष, समझौते एवं असीम वेदना का कच्चा चिट्ठा सामने रखती हैं, “वह सुख लिखने लगी/सोचती रही/सोचती रही/ सोचती रह गयी/ फिर/वह दुख लिखने लगी/लिखती रही/लिखती रही/लिखती ही रह गयी।”
    समय की दरकती आधारशिला पर अंकित ये कविताएं पढ़ने के बाद पाठक बदल जाता है। यह बदलाव मानवता और मानव मूल्यों के लिए है, असहिष्णुता, नफरत, हिंसा, घृणा, के कंटीले तारों से पार जाकर परस्पर प्रेम- स्नेह, सद्भाव की नम जमीन है जहां करुणा, समता, ममता, न्याय, भाईचारे की फसलें लहलहा सकें। यह बदलाव स्वयं की भी है और स्वयं के रचनात्मक किरदार खोजने की भी है।रचनाकार का ताल्लुक पहाड़ से है तो स्वाभाविक तौर पर पहाड़ और पहाड़ी जीवन पर कविताएं होंगी ही। पहाड़ी गांव और पहाड़ का जीवन कविताएं वहां के जीवन के दर्द की परतें उघाड़ते सैलानी से आग्रह करती हैं कि पहाड़ का ऊपरी सौंदर्य ही मत देखो, अंतरमन से बहता दर्द का दरिया भी देखो पर इसके लिए सैलानी की नहीं पहाड़ की नजर और जीवन चाहिए। ‘सोया हुआ आदमी’ गहरे निहितार्थ सहेजे समाज के सोयेपन को उजागर करती है तो  ‘छुपाना और उघाड़ना’ कविता जीवन में रचनात्मकता की पैरवी करती है न कि भाषा में। ‘चौड़ी सड़कें और तंग गलिया’ रचना अपने कथ्य से पाठक का ध्यान खींचते हुए दिलों की तमाम संकीर्णताओं से मुक्ति का पथ दिखाती है तो ‘दीपावली’ मन में बढ़ रहे अंधेरोंं का संकेत करती है तो ‘ हम तुम्हारा भला चाहते हैं’ कविता किसानों के संकट को पेश करती है।
          कुल मिलाकर ‘अब पहुंची हो तुम’ अपने समय का साक्ष्य हैं और न केवल पठनीय है अपितु संग्रहणीय भी है, क्योंकि इसमें जीवन की समस्याओं, जटिलताओं और संकीर्णताओं से मुक्ति का उजास भरा समाधान-पथ भी है। इन कविताओं में जीवन के प्रति आशा और विश्वास का चोखा रंग है तो कुछ नया रचने-गढ़ने का संकल्प भी। पुस्तक का आवरण विकास के वादों का सच बयां करता पाठक को आकर्षित करता है। मुद्रण साफ-सुथरा है। पुस्तक साहित्यकारों एवं आम पाठकों के मध्य समादृत होगी, ऐसा विश्वास है।
पुस्तक : अब पहुंची हो तुम
कवि : महेश चंद्र पुनेठा
प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून
पृष्ठ : 123, मूल्य : ₹125/-
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सम्प्रति : समीक्षक शिक्षक एवं शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं। बांदा, उ.प्र.
मोबा : 9452085234

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