रामचरितमानस- जानिये भाग-17 में क्या क्या हुआ

श्री रामचन्द्राय नम:

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥

 

श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा 

गोस्वामी जी आनंदकंद भगवान श्रीराम के चरित्र और उनके श्रेष्ठ गुणों का बखान करते हुए कहते हैं —-

 

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥

सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥

 

सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित व्यवहार हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं॥

 

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।

दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥ 

 

श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि॥

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।

सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥

 

रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और महान लाभदायक हैं॥

 

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥

सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥

 

जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा॥

 

जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥

कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥

रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥

नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥

 

जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है रामकथा अनंत है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से श्री रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं॥

 

कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥

करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥

 

कल्पभेद के अनुसार श्री हरि के सुंदर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेक प्रकार से गाया है। हृदय में ऐसा विचार कर संदेह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए॥

 

राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।

सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥

 

श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥3॥

 

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥

पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥

 

भावार्थ:-इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥

 

मानस निर्माण की तिथि 

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥

संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥

 

अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत्‌ 1631 में इस कथा का आरंभ करता हूँ॥

 

नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥

जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥

 

चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को श्री अयोध्याजी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्री रामजी का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ श्री अयोध्याजी में चले आते हैं॥

 

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥

जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥

 

असुर-नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्याजी में आकर श्री रघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग जन्म का महोत्सव मनाते हैं और श्री रामजी की सुंदर कीर्ति का गान करते हैं॥

 

मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।

जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥

 

सज्जनों के बहुत से समूह उस दिन श्री सरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुंदर श्याम शरीर श्री रघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं॥

 

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥

 

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥

 

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥

चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥

 

यह शोभायमान अयोध्यापुरी श्री रामचन्द्रजी के परमधाम की देने वाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है। जगत में (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज) चार प्रकार के अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोड़ते हैं, वे फिर संसार में नहीं आते जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटकर भगवान के परमधाम में निवास करते हैं।

 

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥

बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥

 

इस अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की देने वाली और कल्याण की खान समझकर मैंने इस निर्मल कथा का आरंभ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं॥

 

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥

मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥

 

इसका नाम रामचरित मानस है, जिसके कानों से सुनते ही शांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए॥

 

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥

त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥

 

यह रामचरित मानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की। यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों का नाश करने वाला है॥

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥

 

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर ‘रामचरित मानस’ नाम रखा॥

 

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥

 

मैं उसी सुख देने वाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनों! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए॥

 

शेष अगले प्रसंग में ————-

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